Sunday, January 25, 2009

मिथिला की नायाब लोकशैली : भगैत

मिथिला जगत में कई ऐसे कलाकार हैं, कई ऐसी शैली है, कई ऐसे रीति- रिवाज हैं जिसे देख कर और महसूस कर न सिर्फ़ मिथिला के लोग बल्कि दूसरे इलाके के लोग दांतों तले उंगली दबाने के लिए मजबूर होते हैं। पूरी तरह खेती पर जीवन-यापन करने वाली यहाँ की विभिन्न बिरादरी की जिन्दगी खेत-खलियान और नदी-नाले से शुरू होकर यही ख़तम हो जाती है। जिसने बाहर की दुनिया देखी उल्टे मुहँ लौट कर अतीत को याद करना गवारा लगा।

ऐसे में उनके पास पेट की भूख शांत करने के लिए गेहूं तो था लेकिन मन की भूख शांत करने के लिए सेक्स के अलावा शायद ही कुछ रहा होगा। यही वो हालात थे जब सेक्स से मन भर जाने पर लोगों ने जाने-अनजाने पाप और पुण्य जैसे दो शब्दों को इजाद दिया और इसी क्रम में मिथिला में भगैत (भगत) जैसे गायन और नाट्य शैली का विकास हुआ होगा। धीरे-धीरे लोग इससे जुड़ते गए और यह सिर्फ़ मिथिला में ही नही बल्कि नेपाल और पश्चिम बंगाल में भी अपनी पैठ बना ली। हालाँकि जानकारों का मानना है की १९वीं शताब्दी से पहले मिथिला में इस पारंपरिक लोक-शैली का विकास हुआ है, बावजूद इसके, इसे लेकर कहीं भी कोई लिखित विवरण नही मिलता है।

वर्तमान दौर में भी मिथिला के गावों के लोगों का भगैत पर अटूट विश्वास है और माना जाता है की इसके आयोजन के मौके पर देवपुरुष अप्रत्यक्ष रूप से उपस्थित होते हैं। ऐसे देवपुरुषों की संख्या करीब दो दर्जन है जिनमें धर्मराज, राजा चैयां, ज्योति, कारू महाराज, मीरा साहेब, बिसहैर, बेनी, अन्दू बाबा, गहील, हरिया डोम, बरहम, खिरहैर प्रमुख हैं। स्वच्छता और पवित्रता की इसके आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

वैसे तो नाटक का मतलब वास्तविकता के भ्रम को उत्पन्न करना होता है लेकिन भगैत में इससे जुड़े लोगों को वास्तविकता का अहसास होता है। उनकी मान्यता है कि इस पर अविश्वास करने पर महापाप लगता है। इस तरह की अटूट धारणा दुनिया की मुट्ठी भर शैली या विधा में ही देखने को मिलता है। जहाँ पर भगैत होता है, उस मंडली में जो आगे-आगे गाता है उसे पंजियार या मूलगैन कहा जाता है। बाकी गायक को भगैतिया कहा जाता है। मूलगैन कहानी प्रारंभ करता है और फिर समां bandh जाता है।

भगैत के गीत, गायन और गति तेज और सुर ऊंचा होता है। हारमोनियम, ढ़ोलक, झालि, खंजरी, डुगडुगी वातावरण में रस का संचार करते हैं। भगैत के शुरू होने पर भगैतिया लोग बीच-बीच में अपने कान में उंगली डाल कर बहुत ऊंचे स्वर को साधते हैं। आयोजन के दौरान जिस व्यक्ति के शरीर में देवपुरूष का प्रवेश होता है उसे भगता कहा जाता है। गायन के क्रम में भगता के शरीर में जब देवपुरूष का प्रवेश होता है तो शरीर कंपाने लगता है और वह देवपुरूष जैसा व्यवहार करने लगता है।

भगैत की यह शैली अदभुत रूप से जाति-वर्ण से ऊपर उठकर वर्तमान दौर में भी कायम है। भगैत मंडली में सभी वर्ग, सभी धर्म और सभी जातिके लोग शामिल होते हैं। यही कारण है कि देवपुरूषओं में डोम जाति के हरिया डोम तो मुस्लिम संप्रदाय के मीरा साहेब का नाम शामिल है। भगैत गायक में मुनेश्वर यादव, नटापंजियार, भोलन यादव, देखी यादव, रेवती भगता, अर्जुन यादव, बेनी साह, नागो भगता, तुलसी भगता प्रमुख हैं। सबसे अहम् बात यह है कि इस पूरे कार्यक्रम के लिए कोई भी भगैत किसी भी तरह का पारिश्रमिक नही लेता।

1 comment:

Unknown said...

barh neek... man khush bha gel... ahan bahut din san nai likhlau a... ki naaraaj chhee ki?


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